Saturday 7 December 2013

गुरु शरणम्



मित्रो आप सभी मेरे अपने है,अतः आज आप सभी से कुछ चर्चा करना आवश्यक समझता हु.में नहीं जानता  कि आप सभी मुझसे सहमत होंगे या नहीं।में ये भी नहीं जानता  कि आपमे  से कितने लोग मेरे विरोध पर उतारू हो जायेंगे मेरी इस पोस्ट के बाद,परन्तु फिर भी जो कहना आवश्यक है वो है,और उसे कहना ही पड़ेगा।


हम साधको के जीवन का सबसे अनमोल उपहार होते है सद्गुरूदेव, जो कि ईश्वर कि और से हमें दिए जाते है.निश्चय ये पिता परमेश्वर कि ही कृपा है हम सब पर कि हम सबको किसी न किसी गुरु का सानिध्य प्राप्त हुआ है.किन्तु साथ ही ये गुरु तत्त्व का दुर्भाग्य भी है,कि आज उस परम तत्त्व को समझने वालो कि संख्या दिन प्रतिदिन गिरती जा रही है.मित्रो हमने देवी,देवता,विधि आदि सभी को सम्प्रदाय और पंथ में बांध दिया है.भगवान भोलेनाथ ने सभी तंत्र और मार्गो कि उत्पत्ति केवल और केवल इसलिए ही कि थी कि मनुष्य अपने सामर्थ्य अनुसार मार्ग का चयन कर साधना पथ पर आगे बड़ प्रगति करे.न कि इसलिए कि हम  पंथ या सम्प्रदाय के नाम पर एक दूसरे को लज्जित करे या एक दूसरे को हीन समझे। 

परन्तु इस समय तो कुछ ऐसा ही हो रहा है.हम साधना कम कर रहे है बल्कि  एक दूसरे पर कीचड़ अधिक  उछाल रहे है.पंथो तथा मार्गो के नाम पर.ऐसा करके हम अपना सम्मान तो कम करते ही है साथ ही पंथ और सम्प्रदाय कि गरिमा को भी कलंकित करते है.

मेरे सद्गुरुदेव ने पंथ और सम्प्रदाय से मुक्त होकर सम्पूर्ण जीवन जिया,और जब मुझे गुरुगादी सौपी गयी तो सबसे प्रथम आदेश ही यही था कि,इन सब चीज़ो में न उलझते हुए केवल साधना मार्ग पर मुक्त भाव से बढ़ना और मानवता के काम  आना.

मित्रो सभी के गुरु सम्मानीय है,चाहे वे मेरे गुरु हो,निखिलेश्वरानंद जी हो,राम कृष्ण परमहंस जी हो,सभी मेरे लिए बराबर है.कुछ दिनों से मुझे कई मेल प्राप्त हुए.जिनमे एक प्रश्न सामान्य था कि कि आप निखिलेश्वरानंद जी के बारे में क्या सोचते है.अब में क्या कहु ?

क्युकी मैंने कभी कुछ सोचा ही नहीं,न में कभी उनसे मिला,न ही व्यक्तिगत संपर्क में रहा हु.क्युकी में अपने गुरुदेव कि ही सेवा में रहता  था.लेकिन फिर भी एक बात स्प्ष्ट कहना चाहता हु,कि वे ज्ञान के भंडार थे.और यदि कोई उनकी निंदा करता है या उनमे कोई खोट निकालता  है तो ये निंदनीय है.

में किसी भी सम्प्रदाय या पंथ का विरोधी नहीं हु,किन्तु यहाँ जो कुछ चल रहा है उसे देखकर मन अत्यंत दुखी होता है.एक साधक का प्रथम लक्ष्य होता है पूर्णता को प्राप्त करना,और पूर्ण तो वो ही हो सकता है न जो बंधनो से मुक्त हो जाये।पंथ का बंधन,सम्प्रदाय का बंधन ये भी तो फिर एक बंधन ही हुआ है न.मुझसे भी ये प्रश्न पूछे जाते थे कि आप कोनसे पंथ से है.आपके गुरु कोनसे पंथ से थे.मित्रो तो उत्तर तो यही है कि मेरे गुरु का पंथ है "शिष्य "वे अपने शिष्यो को ज्ञान देते और उनमे ही मस्त रहते थे.तब मेरा पंथ था "सद्गुरु" क्युकी में उनमे मस्त रहता था.फिर गुरुगादी मिली और अब मेरा पंथ हो गया " गुरु शिष्य " पंथ क्युकी दिन में अब में अपने शिष्यो में मस्त रहता हु और रात्रि में गुरु कि याद में.
बस यही पंथ है मित्रो।आप वैष्णव बन जाये,दक्षिण मार्गी,कौल,अघोर,वाम,शाक्य या शैव बन जाये किन्तु आप सच्चे साधक तभी बनते है जब सद्गुरु तत्त्व के समक्ष आपका पूर्ण समर्पण हो जाये।

बाकि विवाद तो बस खेल तमाशा है.किसी एक पंथ में बंधकर हमें एक लेवल तो मिल जाता है कि में इस पंथ का हु.लेकिन आपकी विराटता का क्या ? क्युकी कुए में रहकर तालाब  को जाना नहीं जा सकता है.हमें तो कुए को जानने  के बाद सागर में भी गोता  लगाना है,उसकी गहरायी तक उतरना है,उसी प्रकार पंथो में उलझ जायेंगे तो ज्ञान कि तथा साधना क्षेत्र कि विराटता को आप कभी जान ही नहीं पाएंगे।साधक वो जो पूर्ण हो,साधक वो जिसे हर पल कुछ नया करने  कि इच्छा हो,साधक वो जो अपने पंथो में न उलझते हुए सभी पंथो को अपना बना ले.

फकीरी अव्वल बादशाही है मित्रो,
साधक तो फ़क़ीर कि तरह होना चाहिए,जीवन के हर ज्ञान को अपनी धुन में सीखे।बड़ा छोटा अपना पराया सभी का त्याग कर आगे बड़े.

अहंकार का त्याग करे कि मेरे मार्ग से ही मुक्ति सम्भव है,या उसका मार्ग तो तुच्छ मार्ग है.मुक्ति मार्गो से मिला करती मेरे प्यारो, तो हर आदमी मुक्त होता,मुक्ति आती है समर्पण से,निश्चलता से,पवित्रता से,देह से मुक्त हो मोक्ष को पा  जाना मुक्ति नहीं है.ये तो बड़ा सस्ता सौदा है.मुक्त तो वो है जो यही जीते जी मुक्त हो गया हर भेद से,हर पंथ से हर रंग से.

शिव ही सब तंत्रो के जनक है,उनका पंथ क्या है ? उनका तो कोई पंथ नहीं है.जब वे कौल पर बोलते है तो कौलाचार्य हो जाते है,जब वे अघोर पर बोलते है तो अघोर हो जाते है.जब शिवलिंग कि महत्वता समझाते  है तो शैव हो जाते है.जब राम को नमन करते है तो वैष्णव हो जाते है.और जब काम कला काली पर बोलते है तो शाक्य हो जाते है.उनका अपना तो कोई पंथ ही नहीं है.वे जहा खड़े होते है वही से पंथ आरम्भ होता है,वे जिसके साथ खड़े होते है उसी के पंथ में मिल जाते है.वे तंत्र के महा गुरु है क्युकी उनसे ही तंत्र पृथक पृथक रूप में प्रगट होता है.अब मित्रो जब तंत्र के महा गुरु का कोई पंथ नहीं है,तो अन्य गुरु कि क्या बिसात के वे पंथो में उलझे।

बल्कि मेरी तो हिम्मत ही नहीं होती इन सबमे उलझने कि,क्युकी महागुरु मुक्त है तो गुरु क्यों उलझे।न मेरे गुरु उलझे, न में उलझा और न ही मेरे शिष्य कभी उलझेंगे।हम  तो सदा से मुक्त थे है और रहेंगे।

अतः सभी से कर बद्ध निवेदन है कि किसी के गुरु कि निंदा न करे,भले ही आप उनसे सहमत हो या न हो किन्तु ऐसे शब्दो का प्रयोग न करे जिससे किसी का ह्रदय पीड़ित हो,क्युकी ह्रदय में ईश्वर निवास करते है और ईश्वर का घर तोड़कर हमें अपने ज्ञान और पंथो का महल बनाना  पड़े तो क्षमा करे,ऐसा महल किसी काम का नहीं है.अतः सदा सबका सम्मान करे,सबको खुश रखे,हर भेद  भाव से ऊपर उठकर एक ईश्वर कि और बड़े एक गुरु सत्ता कि और बड़े,यही जीवन का आनंद है.

जय अम्बे ,जय जगदम्बे 

1 comment:

  1. Bilkul sahi kaha aapne.. Aaj kal har jagah yahi chal raha hai.. Koi bhi mukti marg par nahi chal rahe hai bas apna guru mahaan bolna aur siddhi ko dosro ke upar galat istemaal karna yahi chal raha hai..

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